Showing posts with label Health. Show all posts
Showing posts with label Health. Show all posts
च्यवनप्राश है हर भारतीय की जिंदगी का हिस्सा, रोगों को कम करे और एनर्जी को बढ़ाए

च्यवनप्राश है हर भारतीय की जिंदगी का हिस्सा, रोगों को कम करे और एनर्जी को बढ़ाए

च्यवनप्राश है हर भारतीय की जिंदगी का हिस्सा, रोगों को कम करे और एनर्जी को बढ़ाए


च्यवनप्राश एक प्राचीन आयुर्वेदिक सप्लीमेंट है जो सर्दी-खांसी, कमजोर इम्युनिटी और श्वसन संबंधी समस्याओं से लड़ने में मदद करता है। यह ऊर्जा, स्टैमिना और ...और पढ़ें





बीमारियों से बचाने में रामबाण है च्यवनप्राश


 सर्दी-खांसी या इम्युनिटी का कमजोर होना, अब किसी खास आयु वर्ग की समस्या नहीं है। बच्चे, बुढ़े और जवान हर कोई इनसे प्रभावित है। मौसम की मार और बढ़ते प्रदूषण ने लोगों को शुद्ध और पौष्टिक आहार के सेवन के संबंध में सचेत कर दिया है। लोग अब जागरूक हो चुके हैं और उन्हें पता है कि उनके शरीर के लिए कौन सा आहार उत्तम है। सर्दियों के मौसम में श्वसन से जुड़ी समस्याएं बढ़ जाती हैं। एनर्जी और स्टैमिना का कम होना आम है। साथ ही, पाचन और ह्र्दय के रोग लगातार परेशान करते हैं। ऐसे में हमारा ध्यान कई महत्वपूर्ण जड़ी-बूटियों से बना च्यवनप्राश पर जाता है। क्योंकि इसका एंटी-एजिंग इफेक्ट और विटामिन, मिनरल व एंटीऑक्सीडेंट की पर्याप्त मौजूदगी हमें कई बीमारियों से दूर रखने में मदद करते हैं।


च्यवनप्राश प्राचीन काल से इस्तेमाल किए जाने वाला आहार सप्लीमेंट है। यह ऋग्वेद का आशीर्वाद है और हमारी विरासत भी। यह बढ़ती उम्र से लेकर खांसी और आम सर्दी तक, कई तरह की स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने के लिए एक रामबाण है। यह ताकत, स्टैमिना और स्फूर्ति को बढ़ाकर जीवन को उत्साह से भर देता है। पारंपरिक आयुर्वेद के चिकित्सक च्यवनप्राश को “एजलेस वंडर” कहते हैं। चरक संहिता के अनुसार, “यह सबसे अच्छा रसायन है, जो खांसी, अस्थमा और सांस की दूसरी बीमारियों को दूर करने में फायदेमंद है। यह कमजोर और खराब हो रहे टिश्यू को पोषण देता है। यह एंटी-एजिंग सप्लीमेंट है जो ताकत और एनर्जी को बढ़ाता है।"




च्यवनप्राश तीन दोषों—वात, पित्त और कफ को संतुलित करने में मदद करता है। इसका मतलब यह हुआ कि शरीर के ह्यूमर/ बायोएनर्जी शरीर की बनावट और बायोफंक्शन को रेगुलेट करते हैं। यहां जानना जरूरी है कि आयुर्वेद में जड़ी-बूटियों के खास असर को माइक्रो एवं माइक्रोन्यूट्रिएंट्स सप्लीमेंट और मेटाबोलिक एवं टिश्यू न्यूट्रिशन के स्तर पर अच्छी तरह से पहचाना गया है, तभी हम सालों से इसका फायदा ले रहे हैं। आज जड़ी-बूटियों पर इस तरह का आयुर्वेदिक और वैज्ञानिक रिसर्च डाबर च्यवनप्राश (Dabur Chyawanprash) में देखने को मिलता है। यह एक आयुर्वेदिक डेली हेल्थ सप्लीमेंट है, जिसमें पोषक तत्वों से भरपूर जड़ी-बूटियों और मिनरल्स की प्रचुरता है। यह सालों से हर भारतीय की जिंदगी का हिस्सा है, जो सर्दी-खांसी जैसी बीमारी को रोकने में मदद करता है, उर्जा बढ़ाता है और प्राकृतिक एंटी-एजिंग क्षमता से भरपूर है।


हर्बल फॉर्मूलेशन बनाने के लिए पर्याप्त रिसर्च और अनुभव की जरूरत होती है। क्योंकि, कॉम्पोनेंट्स को अलग करना, उसे पहचाना और उसकी मात्रा को निर्धारित करना, बिना तकनीक और इनोवेशन के संभव नहीं है। डाबर च्यवनप्राश की पूरी प्रक्रिया वैज्ञानिक रिसर्च पर आधारित होती है। इनके च्यवनप्राश के कम्पोजीशन में एक बड़ा हिस्सा आंवले का होता है, जो गैलिक एसिड और पॉलीफेनोल्स से भरपूर होता है। इस कम्पोजीशन के फेनोलिक कंपाउंड्स में एंटीऑक्सीडेंट गुण होते हैं, जो च्यवनप्राश के रिजुविनेटिंग और टॉनिक गुणों में योगदान देते हैं।


च्यवनप्राश हमारे इम्यून सिस्टम को बढ़ाता है और यह इसका सबसे प्रमुख लाभ है। लेकिन इसके पीछे एंटीबॉडीज की मुख्य भूमिका होती है। जैसे इम्युनोग्लोबुलिन एंटीबॉडी पैथोजन्स से लड़ता है, तो वहीं IgG शरीर में सबसे ज्यादा पाया जाने वाला एंटीबॉडी है, जो खून और शरीर के दूसरे फ्लूइड्स में होता है। यह इन्फेक्शन से लंबे समय तक सुरक्षा देता है और फीटस को बचाने के लिए प्लेसेंटा को क्रोस कर सकता है। वहीं, IgE एंटीबॉडी एलर्जिक रिएक्शन से जुड़ा है। जब शरीर किसी एलर्जेन के संपर्क में आता है तो IgE एंटीबॉडी मास्ट सेल्स से जुड़ जाती है, जिससे केमिकल्स (जैसे हिस्टामाइन) रिलीज होते हैं जो एलर्जी के लक्षण पैदा करते हैं। स्टडीज से पता चला है कि IgG और IgM ज्यादा बढ़ने और IgE के कम होने से हिस्टामाइन कम हुआ, जो इम्यूनोस्टिम्युलेटरी के असर को दिखाता है। एक एक्सपेरिमेंटल स्टडी से पता चला है कि डाबर च्यवनप्राश प्रीट्रीटमेंट से एलर्जेन और ओवलब्यूमिन से होने वाली एलर्जी के साथ प्लाज्मा हिस्टामाइन लेवल और सीरम इम्यूनोग्लोबुलिन E (IgE) रिलीज में काफी कमी आई, जो इसकी एंटीएलर्जिक क्षमता का संकेत देती है।


डाबर च्यवनप्राश अपने तरह का एक बैलेंस्ड फॉर्मूला है। इसे बनाने के लिए आयुर्वेदिक के साथ मॉडर्न तरीकों को अपनाया गया है, जो सुरक्षित होने के साथ इफेक्टिव भी है। इसमें इस्तेमाल होने वाले बोटैनिकल एक्सट्रैक्ट कई फाइटोन्यूट्रिएंट्स में मदद करते हैं। खास तौर पर गैलिक एसिड, फ्लेवोनॉयड्स, एल्कलॉइड्स, पिपेरिन, आंवले से मिलने वाले टैनिन (मुख्य सामग्री) और साथ ही 40+ दूसरी जड़ी-बूटियां जो च्यवनप्राश में एक्सट्रैक्ट के तौर पर इस्तेमाल होती हैं। इसके अलावा इसमें गाय का घी और तिल का तेल है जिसे आयुर्वेद में यमकद्रव्य कहते हैं। इसमें खुशबूदार बोटैनिकल पाउडर है जो एक प्रक्षेपद्रव्यस है, जिसमें पीपली, नागकेसर, इलायची, तमलपत्र, दालचिनी जैसे इंग्रीडिएंट्स शामिल है।
प्रदूषण में आयुर्वेद को बनाएं सुरक्षा कवच, डॉक्टर ने दी दिल और फेफड़ों को स्वस्थ रखने की खास सलाह

प्रदूषण में आयुर्वेद को बनाएं सुरक्षा कवच, डॉक्टर ने दी दिल और फेफड़ों को स्वस्थ रखने की खास सलाह

प्रदूषण में आयुर्वेद को बनाएं सुरक्षा कवच, डॉक्टर ने दी दिल और फेफड़ों को स्वस्थ रखने की खास सलाह

वायु प्रदूषण से लड़ने के लिए लोग तमाम तरह के उपाय तो कर रहे हैं, लेकिन एक बार आयुर्वेदिक उपचारों को अपनी दिनचर्या में शामिल करके जरूर देखना चाहिए। आयुर्वेदिक शुद्धीकरण और आहार कैसे शरीर के लिए सुरक्षा कवच का काम करते हैं। आइए जानें।




प्रदूषण के बीच कैसे रखें सेहत का ख्याल? (Picture Courtesy: AI Generated Image)


 वायु प्रदूषण के प्रभाव से बचने के लिए लोग घर के अंदर कीमती एयर प्यूरिफायर और इंडोर प्लांट्स लगा रहे हैं, लेकिन ये सारे केवल ऊपरी उपाय हैं, जिनका प्रभाव थोड़े समय के लिए ही रहता है। आयुर्वेद के पास ऐसे स्थायी समाधान हैं, जो आपके फेफड़ों और दिल को स्वस्थ रख सकते हैं। वायु से हमारा जीवन है। इससे शरीर को पोषण मिलता है, लेकिन जब वायु ही विषाक्त होने लगे, तब क्या किया जाए। आइए, श्वसन तंत्र की सुरक्षा के लिए कुछ प्रभावी आयुर्वेदिक उपायों पर नजर डालते हैं।

आयुर्वेदिक शुद्धीकरण (पंचकर्म)

प्रदूषण के कारण शरीर में विषाक्त पदार्थ जमा होने लगते हैं, जिन्हें समय-समय पर बाहर निकालना आवश्यक है। इसलिए सर्दियों में पंचकर्म करवाने की सलाह दी जाती है । आयुर्वेद की विषहरण चिकित्सा है पंचकर्म, इससे विषाक्त पदार्थ शरीर से बाहर निकाले जाते हैं।


वमन (उल्टी): श्वसन पथ से अतिरिक्त बलगम और प्रदूषकों को हटाने में मदद करता है।

विरेचन: इस प्रक्रिया से शरीर से विषाक्त पदार्थों को साफ करने और सूजन कम करने में मदद मिलती है।

स्टीम स्वेदना ( हर्बल थेरेपी ): यह वायुमार्ग और कफ को खोलने में मदद करती है।

बस्ती (एनीमा थेरेपी ): यह एक हर्बल एनीमा प्रक्रिया है, जो बृहदांत्र को साफ करके आंतों से विषाक्त पदार्थ बाहर निकालती है।
नास्य चिकित्सा

वायुजनित प्रदूषकों के विरुद्ध एक कवच का काम करती है नास्य चिकित्सा यह एक आयुर्वेदिक चिकित्सा हैं, जिसमें औषधीय तेलों को नाक में डाला जाता है। इससे नासिका की नली साफ करने में मदद मिलती है। आप चाहें तो घी का प्रयोग भी कर सकते हैं। प्रतिदिन सुबह नासिका में तेल की दो-तीन बूंदें डालें। गहरी सांस लें ताकि तेल नाक के मार्ग में समा जाए। इसे डालने के बाद तुरंत बाहर जाने से परहेज करें।

आयुर्वेदिक हर्ब्स

आयुर्वेदिक हर्ब्स स्वस्थ दिनचर्या बनाए रखने में मदद करते हैं। जैसे तुलसी सूजन कम करती है और वायुमार्ग साफ रखती है। मुलेठी गले को आराम देती है। हल्दी में करक्यूमिन होने के कारण यह लाभकारी है। आंवला विटामिन सी से भरपूर है। इससे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है और श्वसन संक्रमण से बचाव होता है। शहद फेफड़ों से बलगम साफ करने में मदद करता है और खांसी में आराम देता है।


स्वस्थ आहार गर्म पानी से भांप लेने से गला और नाक दोनों साफ होते हैं। धूल और धुएं के कारण गले में खराश होने लगती है। गर्म पानी में नमक डालकर गरारे करने से गला साफ होता है। अदरक, तुलसी, हल्दी और शहद डालकर हर्बल टी बनाएं इसमें एंटीइन्फ्लेमेटरी और एंटीआक्सीडेंट्स के गुण समाए हुए हैं। विटामिन सी से भरपूर फल जैसे संतरा, आंवला, कीवी और अमरूद खाएं। हल्दी वाला दूध रात को लेने से शरीर की सूजन कम होती है और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है।


डॉ. मेधा कुलकर्णी (प्रोफेसर, स्वस्थवृत्त, अखिल भारतीय आयुर्वेद संस्थान, दिल्ली) बताती हैं कि इस मौसम में नए चावल और आलू आने शुरू हो जाते हैं। इसके सेवन से पाचन तंत्र मजबूत रहता है। ठंड के मौसम में तिल, गोंद, दूध, पनीर आदि खाने से शरीर में गर्माहट आती है और इम्युनिटी बढ़ती है। दालचीनी, अदरक, मेथी और गरम मसालों के प्रयोग से सूजनरोधी क्षमताएं बढ़ती हैं। साथ ही इस मौसम में हरी पत्तेदार सब्जियां जैसे पालक, बथुआ, साग खानी चाहिए। इनमें कई तरह के मिनरल्स और विटामिंस पाए जाते हैं। ठंड में मांसपेशियों के दर्द से राहत के लिए गर्म पानी से नहाएं। सुबह उठकर योगासन और प्राणायम करने से शरीर में ऊर्जा का संचार होता है।
बचपन के घातक कैंसर में गेम चेंजर साबित हो सकती है यह दवा, खत्म होगा एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस का डर

बचपन के घातक कैंसर में गेम चेंजर साबित हो सकती है यह दवा, खत्म होगा एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस का डर

बचपन के घातक कैंसर में गेम चेंजर साबित हो सकती है यह दवा, खत्म होगा एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस का डर


कैंसर एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज हो जाने के बाद भी अक्सर रोगी को लंबे समय तक तनाव में रखती है, खासकर तब जब इलाज के बाद यह बीमारी फिर से पनप उठती है। दोबारा होने वाले कैंसर के मामले अक्सर और भी घातक होते हैं क्योंकि ये पिछली दवाओं के प्रति रेजिस्टेंस हो जाते हैं, जिसके कारण मृत्यु दर बढ़ जाती है।



बचपन का कैंसर फिर पनपने पर होगा अधिक कारगर इलाज (Image Source: Freepik)

 कैंसर के मामलों में ऐसा अक्सर होता है कि इलाज के बाद रोगी स्वस्थ दिखने लगता है। लेकिन कुछ समय बाद वह रोग फिर से पनप जाता है और ऐसे में वह इलाज प्रतिरोधी भी होता है। इस कारण ऐसे मामलों में मौतें ज्यादा होती हैं। अब आस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं ने एक ऐसी दवा की खोज की है जो बचपन में होने वाले घातक कैंसर न्यूरोब्लास्टोमा के उपचार में दवा प्रतिरोध की बाधा को पार करने में मदद कर सकती है। यह खोज न्यूरोब्लास्टोमा के उपचार में बड़ा सुधार ला सकती है। बता दें, न्यूरोब्लास्टोमा बच्चों में मस्तिष्क के बाहरी हिस्से में सबसे सामान्य ठोस ट्यूमर है, और वर्तमान में यह 10 में से नौ मरीजों की जान ले लेता है, जिनमें यह रोग फिर से पनपता है।

कैंसर सेल्स के डिफेंस सिस्टम को भेदने का दावा

चीन की समाचार एजेंसी शिन्हुआ की एक रिपोर्ट के अनुसार, आस्ट्रेलिया के गार्वन इंस्टीट्यूट आफ मेडिकल रिसर्च के शोधकर्ताओं का दावा है कि यह दवा संयोजन उन कोशिकीय रक्षा तंत्रों को पार कर सकता है, जो ये ट्यूमर विकसित करते हैं और रोग की पुनरावृत्ति होती है।


शोधकर्ताओं के मुताबिक, लिंफोमा के लिए स्वीकृत वा रोमिडेप्सिन वैकल्पिक मार्गों के माध्यम से न्यूरोब्लास्टोमा कोशिका मृत्यु को प्रेरित करती है, जो रासायनिक चिकित्सा- प्रतिरोधी मामलों में सुधार के लिए अवरुद्ध मार्गों को बाइपास करती है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि मानक रासायनिक चिकित्सा दवाएं कोशिका मृत्यु के लिए जेएनके मार्ग "स्विच” पर निर्भर करती हैं। फिर से होने वाले ट्यूमरों में यह स्विच अक्सर काम करना बंद कर देता है, जिसका अर्थ है कि उपचार अब प्रभावी नहीं है।


पशु मॉडलों पर किए गए अध्ययनों में पाया गया है कि रोमिडेप्सिन के साथ मानक कीमोथैरेपी ट्यूमर वृद्धि को वैकल्पिक कोशिका - मृत्यु मार्गों के माध्यम से रोकता है, जो प्रतिरोधी मामलों में सामान्य अवरुद्ध जेएनके मार्ग को बाइपास करता है।

बार-बार होने वाले कैंसर का नया इलाज

इस संयोजन ने ट्यूमर वृद्धि को कम किया, जीवनकाल को बढ़ाया और कम कीमोथैरेपी की सहुलियत मिली, जिससे छोटे बच्चों में दुष्प्रभावों को कम करने की संभावना बढ़ी है। यह शोध अध्ययन साइंस एडवांसेस में प्रकाशित किया गया है । गार्वन इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर डेविड क्राउचर ने बताया कि न्यूरोब्लास्टोमा के फिर से पनपने के उच्च जोखिम की प्रतिरोधी स्थिति को पार करने का एक तरीका खोजना मेरे प्रयोगशाला का एक प्रमुख लक्ष्य रहा है। ये ट्यूमर कीमोथैरेपी के प्रति अत्यधिक प्रतिरोधी हो सकते हैं। जब मरीज उस स्थिति में पहुंचते हैं तो परिवार के लिए आपदा साबित होते हैं।

रोमिडेप्सिन बन सकती है 'गेम चेंजर'

रोमिडेप्सिन पहले से ही अन्य कैंसर के लिए उपयोग के लिए स्वीकृत दवा है और बच्चों में सुरक्षा के लिए परीक्षण किया गया है, जो न्यूरोब्लास्टोमा के लिए एक नए उपचार विकल्प के रूप में दवा के विकास को तेज कर सकता है। हालांकि, किसी भी क्लीनिकल एप्लीकेशन के लिए दवाओं के संयोजन की सुरक्षा और प्रभावशीलता स्थापित करने के लिए आगे परीक्षण और क्लीनिकल परीक्षण आवश्यकता है।
क्या है इंटीग्रेटिंग पैलिएटिव केयर, जो गंभीर बीमारी से जूझ रहे लोगों के लिए बन सकती है 'आशा की किरण'

क्या है इंटीग्रेटिंग पैलिएटिव केयर, जो गंभीर बीमारी से जूझ रहे लोगों के लिए बन सकती है 'आशा की किरण'

क्या है इंटीग्रेटिंग पैलिएटिव केयर, जो गंभीर बीमारी से जूझ रहे लोगों के लिए बन सकती है 'आशा की किरण'


जब कोई व्यक्ति लाइलाज या गंभीर बीमारी से जूझ रहा होता है, तो उसका जीवन असहनीय दर्द और दुख से भर जाता है। ऐसे समय में, केवल बीमारी का इलाज ही काफी नहीं होता, बल्कि जीवन की गुणवत्ता को बेहतर बनाना सबसे जरूरी होता है। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए एक नई और उभरती हुई चिकित्सा पद्धति सामने आई है, जिसे 'इंटीग्रेटिंग पैलिएटिव केयर' कहा जाता है।




गंभीर बीमारियों से जूझ रहे लोगों के लिए क्यों जरूरी है 'पैलिएटिव केयर' (Image Source: Freepik)


 किसी गंभीर या लाइलाज बीमारी से जूझ रहे व्यक्ति के लिए इलाज सिर्फ दवाइयों तक सीमित नहीं होता, बल्कि उन्हें जरूरत होती है ऐसे सहारे की, जो उनके दर्द को कम करे, मन को शांत रखे और परिवार को भी इस कठिन समय में संभाल सके। इसी जरूरत को पूरा करने के लिए आज दुनिया भर में 'इंटीग्रेटिंग पैलिएटिव केयर' पर जोर दिया जा रहा है। यह कोई अंतिम विकल्प नहीं, बल्कि एक ऐसी चिकित्सा पद्धति है, जो मरीज का जीवन बेहतर और सहज बनाने पर ध्यान देती है।



क्या है इंटीग्रेटिंग पैलिएटिव केयर?

यह ऐसी स्वास्थ्य सेवा है जिसका उद्देश्य गंभीर और घातक बीमारियों से पीड़ित मरीजों को शारीरिक, सामाजिक और आध्यात्मिक रूप से राहत देना है। इसमें दर्द कम करने से लेकर भावनात्मक समर्थन तक सब शामिल होता है, ताकि मरीज और उनके परिवार, दोनों के जीवन की गुणवत्ता सुधर सके।

भारत में जरूरत बहुत, पहुंच बेहद कम

शोध के अनुसार भारत में करीब 70 लाख से 1 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें पैलिएटिव केयर की आवश्यकता है, लेकिन सच्चाई यह है कि चार प्रतिशत से भी कम मरीज तक यह सुविधा पहुंच पाती है। यह अंतर बताता है कि देश की बड़ी आबादी इस महत्वपूर्ण स्वास्थ्य सेवा से वंचित है।

शोध क्या कहता है?

यह अध्ययन पुणे के एसोसिएशन फॉर सोशल्ली अप्लीकेबल रिसर्च (ASAR) द्वारा किया गया और इसका निष्कर्ष ई कैंसर मेडिकल साइंस में प्रकाशित हुआ।

अध्ययन का मुख्य उद्देश्य था- भारत में पैलिएटिव केयर की भौगोलिक पहुंच का आकलन करना और यह समझना कि यदि इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के हर स्तर में शामिल कर दिया जाए, तो इसकी पहुंच कितनी बढ़ सकती है
ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में बड़ा अंतर

अध्ययन में पाया गया कि ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं की पहुंच शहरी क्षेत्रों की तुलना में कहीं कमजोर है। राज्यों के बीच भी काफी असमानता देखी गई- कुछ राज्यों में यह सेवा बेहतर रूप से उपलब्ध है, जबकि कई राज्यों में इसकी पहुंच बेहद सीमित है।

एकीकरण से बदल सकती है तस्वीर

शोध का महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि जब पैलिएटिव केयर को स्वास्थ्य प्रणाली के हर स्तर- जिला अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, कम्युनिटी हेल्थ सेंटर आदि में शामिल किया गया, तो इसकी पहुंच में उल्लेखनीय बढ़ोतरी देखी गई। इसका मतलब है कि अगर सरकार और स्वास्थ्य संस्थान मिलकर इसे स्वास्थ्य ढांचे का हिस्सा बना दें, तो पूरे देश में अधिक समान और सुलभ देखभाल सुनिश्चित की जा सकती है।

क्यों है पैलिएटिव केयर का विस्तार जरूरी?मरीजों को बेहतर जीवन गुणवत्ता मिलती है
दर्द और मानसिक तनाव में कमी आती है
परिवारों को भावनात्मक और सामाजिक सहयोग मिलता है
स्वास्थ्य प्रणाली पर दबाव कम होता है
समय रहते सही देखभाल मिलने से मरीज की स्थिति सुधरती है

इंटीग्रेटिंग पैलिएटिव केयर उन लाखों लोगों के लिए आशा की किरण है, जो गंभीर बीमारियों से जूझ रहे हैं। यह सिर्फ एक चिकित्सा सेवा नहीं, बल्कि मानवीय संवेदनाओं से भरा एक ऐसा प्रयास है, जिसके माध्यम से मरीजों को सम्मानजनक, सहज और बेहतर जीवन जीने में महत्वपूर्ण मदद मिल सकती है। अगर इसे पूरी तरह से सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में शामिल कर दिया जाए, तो भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की तस्वीर बदलना बिल्कुल संभव है।
बच्चों को गुदगुदी करना बंद करें! डॉक्टर ने समझाया कैसे उनके लिए सजा बन सकता है आपका मजा

बच्चों को गुदगुदी करना बंद करें! डॉक्टर ने समझाया कैसे उनके लिए सजा बन सकता है आपका मजा

बच्चों को गुदगुदी करना बंद करें! डॉक्टर ने समझाया कैसे उनके लिए सजा बन सकता है आपका मजा

बचपन में शायद ही कोई ऐसा हो जिसे दोस्तों या परिवार के हाथों गुदगुदी का एहसास न हुआ हो। अक्सर माता-पिता या बड़े अपने बच्चों को प्यार जताने या हंसाने के लिए गुदगुदी का सहारा लेते हैं, लेकिन क्या आपको मालूम है कि जिसे आप प्यार भरा खेल या मजा समझ रहे हैं, वह आपके बच्चे के लिए तनाव, बेचैनी और कभी-कभी 'सजा' जैसा बन सकता है? आइए, डॉ. मनन वोरा से जानते हैं इसके बारे में।




आज ही छोड़ दें बच्चों को गुदगुदी करने की आदत (Image Source: AI-Generated)

 हम अक्सर सोचते हैं कि बच्चों को गुदगुदाना एक मासूम, मजेदार और प्यारा-सा पल होता है। बच्चा हंस पड़ता है, पेरेंट्स भी खुश हो जाते हैं- जैसे सब ठीक ही चल रहा हो, लेकिन क्या हर हंसी वास्तव में खुशी ही होती है? शायद नहीं।


बच्चों को गुदगुदी करना जितना बाहर से क्यूट लगता है, अंदर से उनका शरीर कुछ और ही कहानी कह रहा होता है। कई बार यह हंसी खुशी की नहीं, बल्कि एक रिफ्लेक्स की होती है और जरूरी नहीं कि बच्चा वास्तव में मजे में हो।


गुदगुदी का सच

जब किसी छोटे बच्चे को गुदगुदाया जाता है, उसके शरीर में कुछ ऐसे बदलाव होते हैं जिन्हें हम अक्सर नोटिस नहीं करते:
हंसी एक रिफ्लेक्स है, हमेशा खुशी नहीं

बच्चा हंस जरूर देता है, लेकिन यह हंसी ज्यादातर ऑटोमेटिक प्रतिक्रिया होती है। शरीर इस तरह बना है कि कुछ जगहों को छूने पर वह अनायास हंस पड़ता है- भले ही भीतर से उसे अच्छा न लग रहा हो।

सांस रुकने जैसा एहसास

कई बच्चों की सांस एक पल को अटक सकती है। गुदगुदी से अचानक शरीर में तनाव जैसा महसूस होता है, जिससे उनका ब्रीथ पैटर्न बदल सकता है।
दिल की धड़कन तेज हो जाना

गुदगुदी को शरीर कभी-कभी फन के बजाय अचानक के डर की तरह लेता है। ऐसे में हार्ट रेट बढ़ सकती है।
मसल्स टाइट हो जाना

बच्चों का पूरा शरीर गुदगुदाने पर सिकुड़ जाता है। ये भी एक रिफ्लेक्स है, लेकिन यह असहजता भी पैदा कर सकता है।
स्ट्रेस हार्मोन बढ़ सकते हैं

हम सोचते हैं कि हम बच्चे को हंसा रहे हैं, लेकिन उसका शरीर इसे स्ट्रेस की तरह भी ले सकता है। कई बार उसे खुद समझ नहीं आता कि वो मजे में है या घबरा गया है।







(Image Source: AI-Generated)
फिर बच्चे हंसते क्यों हैं?

क्योंकि शरीर को गुदगुदी पर ऑटोमेटिक रूप से हंसने के लिए डिजाइन किया गया है। बच्चा ये नहीं बता पाता कि उसे गुदगुदी अच्छी लग रही है या वो सिर्फ रिएक्ट कर रहा है। यह हंसी उसकी सहमति नहीं होती।

क्या गुदगुदी करना गलत है?

गुदगुदी पूरी तरह बुरी नहीं, पर जोखिम तब बढ़ता है जब:लगातार और ज्यादा देर तक गुदगुदाया जाए
बच्चा ना कह रहा हो, लेकिन हंसने के कारण उसकी बात को हल्के में लिया जाए
उसे अपनी बॉडी पर कंट्रोल न महसूस हो
वह भागने की कोशिश करे लेकिन उसे रोका जाए
गुदगुदाने से वह चौंक जाए, बेचैन हो या चिड़चिड़ा दिखे

गुदगुदी बच्चे के लिए कभी-कभी ओवरस्टिमुलेशन का कारण भी बन सकती है- यानी इतनी ज्यादा उत्तेजना कि बच्चा खुद को सुरक्षित महसूस न करे।

कैसे समझें कि बच्चा असहज है?

हर बच्चा कुछ संकेत देता है, बस हमें उन्हें पढ़ना सीखना होता है:शरीर को पीछे खींचना
हाथों से रोकने की कोशिश
तेज सांस लेना
चेहरा सिकोड़ना या आंखें बड़ी होना
नजरें बचाना
अचानक चुप हो जाना
रुकने के लिए शरीर को टेढ़ा करना

अगर ये संकेत दिखें, तो तुरंत रुक जाएं- भले ही बच्चा हंस रहा हो।

बच्चे का ‘कंसेंट’ समझें

बच्चों को छोटी उम्र में ही यह महसूस होना चाहिए कि उनका शरीर उनका है।

अगर आप हर बार पूछकर गुदगुदाएं -
“क्या मैं गुदगुदाऊं?”
“बस हो गया?”
“और करूं या रुकूं?”

ये छोटा-सा कदम उन्हें बॉडी सेफ्टी और कंसेंट समझने में मदद करता है। यह आदत आगे चलकर उन्हें अपने लिए बोलने की ताकत देती है।
गुदगुदाने के सही तरीकेबहुत हल्की और छोटी गुदगुदी
हमेशा बच्चे की बॉडी लैंग्वेज देखें
बीच-बीच में रुककर पूछें कि वह ठीक है या नहीं
अगर बच्चा भागे तो उसे जाने दें
ऐसे गेम खेलें, जो बच्चे कंट्रोल कर सके, जैसे “किसने छुआ?” या “कहां छुआ?” जैसे फन टच गेम्स

बच्चों को मजा तभी आता है जब उन्हें चॉइस मिले, यानी कंट्रोल नहीं छीना जाए।

गुदगुदी का मजा तभी, जब बच्चा भी हो तैयार

गुदगुदाना गलत नहीं, लेकिन बेवजह, लंबे समय तक या बिना उनकी सहमति के गुदगुदाना उनके शरीर और दिमाग पर तनाव डाल सकता है।
अल्ट्रा-प्रोसेस्ड' फूड बन रहा मोटापे और हार्मोनल इंबैलेंस की वजह, स्वाद के लिए सेहत से न करें समझौता

अल्ट्रा-प्रोसेस्ड' फूड बन रहा मोटापे और हार्मोनल इंबैलेंस की वजह, स्वाद के लिए सेहत से न करें समझौता

अल्ट्रा-प्रोसेस्ड' फूड बन रहा मोटापे और हार्मोनल इंबैलेंस की वजह, स्वाद के लिए सेहत से न करें समझौता


क्या आप जानते हैं कि आजकल शहरों में एक ऐसी चीज बहुत तेजी से फैल रही है जो हमारे बच्चों और युवाओं को अंदर से कमजोर कर रही है? जी हां, इसका नाम है जंक फूड। यह भले ही आपके स्वाद को भाता हो, मगर चुपके से आपकी सेहत को भी बिगाड़ रहा है। आंकड़े बताते हैं कि राजधानी दिल्ली जैसे बड़े शहरों में, पैकेज्ड फूड की खपत बहुत तेजी से बढ़ रही है।




मोटापा, डायबिटीज और बीमारियों का बड़ा कारण बन रहा जंक फूड (Image Source: Freepik)

 आज के समय में सुविधाजनक और स्वादिष्ट दिखने वाला जंक फूड हमारी दिनचर्या में तेजी से जगह बना चुका है। खासकर दिल्ली जैसे बड़े शहरों में इसकी खपत इतनी तेजी से बढ़ रही है कि यह अब एक गंभीर स्वास्थ्य संकट का रूप ले चुकी है। चिप्स, नूडल्स, नमकीन, कोल्ड ड्रिंक, चॉकलेट और ब्रेकफास्ट सीरियल जैसी पैकेट बंद चीजें बच्चों और युवाओं की पहली पसंद बन गई हैं, लेकिन इनके पीछे छिपे खतरे बहुत गहरे हैं।



भारत में अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड्स की बम्पर बिक्री

पिछले लगभग पंद्रह वर्षों में भारत में पैक्ड और अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड्स की बिक्री कई गुना बढ़ गई है। द लांसेट की नई रिपोर्ट के अनुसार, इस वर्ष इन उत्पादों का बाजार 50 बिलियन डॉलर के करीब पहुंच सकता है। यह तेज बढ़ोतरी विशेषज्ञों के लिए बड़ी चिंता बन चुकी है, क्योंकि इसका सीधा संबंध बढ़ते मोटापे और उससे जुड़ी बीमारियों से है।


मोटापा और हार्मोनल असंतुलन

जंक फूड में पोषण का संतुलन लगभग गायब होता है। इनमें विटामिन, फाइबर या प्राकृतिक तत्वों की बजाय ज्यादा चीनी, नमक, तेल और आर्टिफिशियल रंग होते हैं। यही वजह है कि इन्हें खाने से पेट भरने के बावजूद शरीर को आवश्यक ऊर्जा नहीं मिलती, बल्कि ऐसी चीजें हमें बार-बार खाने की आदत डाल देती हैं। धीरे-धीरे यह आदत मोटापा, हार्मोनल असंतुलन और सेहत से जुड़ी अन्य समस्याओं को जन्म देती है।

कम समय में ही दोगुना बढ़ा मोटापा

देश में मोटापे की स्थिति चिंताजनक है। आंकड़े बताते हैं कि पुरुषों में मोटापा 12 प्रतिशत से बढ़कर 23 प्रतिशत तक पहुंच गया है। वहीं महिलाओं में यह 15 प्रतिशत से बढ़कर 24 प्रतिशत हो चुका है। यानी कुछ ही वर्षों में दोनों ही श्रेणियों में मोटापा लगभग दोगुना बढ़ा है। यह बढ़ोतरी विशेषज्ञों के मुताबिक उतनी ही खतरनाक है, जितनी प्रदूषण से फेफड़ों पर पड़ने वाली मार।

अब नहीं संभले तो कब?

इन सभी बातों से साफ है कि जंक फूड का बढ़ता बाजार सिर्फ स्वाद का मामला नहीं, बल्कि एक व्यापक स्वास्थ्य चुनौती बन चुका है। जरूरत है कि लोग जागरूक हों, बच्चों में सही खान-पान की आदतें विकसित की जाएं और घर में स्वास्थ्यवर्धक विकल्पों को प्राथमिकता दी जाए। अगर अभी कदम नहीं उठाए गए, तो आने वाले वर्षों में मोटापा और उससे जुड़ी बीमारियां और भी अधिक तेजी से बढ़ सकती हैं।