तुम मुझे यूं भुला न पाओगे, जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे।

July 30, 2021



 JKA 24न्यूज़ (जनजन का आसरा)

भोपाल@ न फनकार तुझ सा तेरे बाद आया, मो. रफी तू बहुत याद आया। इस गीत के पंक्तियां मो. रफी साहब पर बिल्कुल सही लिखी गई हैं आज 31 जुलाई हैं रफी साहब की 41वी पुण्यथिति, आज के दिन ही ये महान गायक अपने करोड़ो फेन्स को हमेशा, हमेशा के लिए छोड़कर चला गया था और संगीत की दुनिया मे एक वीरानी सी छा गई थी, ऐसा लगा मानो संगीत के शरीर के साथ संगीत की आत्मा भी चली गई।

रफी साहब की पैदाइश-- रफी साहब का जन्म 1924 को पाकिस्तान के सुल्तान-सिंह में हुआ था रफी साहब को बचपन से गाने का शौक था रफी साहब ने अपने इंटरव्यू में खुद बताया कि एक फकीर हमारे मोहल्ले में आता था और वो एक गीत गाकर माँगा करता था रफी साहब उस फकीर के पीछे-पीछे जाते और उस फकीर का गाना सुनते, और फिर अकेले में उस फकीर के गाए हुए गाने को गाते। जब उनके बड़े भाई अब्दुल हमीद ने अपने छोटे भाई रफी को गाना गाते हुए देखा तो वो रफी साहब को संगीत के उस्तादों के यहाँ संगीत सीखने के लिए ले गए, इस तरह रफी साहब ने संगीत के उस्तादों से संगीत की शिक्षा हासिल की। 

एक बार लाहौर रेडियो स्टेशन पर उस ज़माने के मशहूर अमर गायक कुंदनलाल सहगल का एक प्रोग्राम था लोग अपने पसंदीदा गायक सहगल को सुनने के लिए लाहौर रेडियो स्टेशन पर जमा हो गए रफी साहब को भी उनके बड़े भाई अब्दुल हमीद अपने साथ लाहौर रेडियो स्टेशन ले गए। अचानक लाहौर रेडियो स्टेशन की लाइट चली गई और कुंदनलाल सहगल ने बिना माइक के गाने से मना कर दिया, लोग सहगल को सुनने के लिए बेताब हो रहे थे और बेकाबू हो रहे थे लाहौर रेडियो स्टेशन के कर्मचारियों को समझ नही आ रहा था कि पब्लिक को कैसे शांत किया जाए, तब रफी साहब के बड़े भाई लाहौर रेडियो स्टेशन के अधिकारियों के पास गए और उनसे कहा मेरा छोटा भाई रफी भी गाता हैं अगर आप लोगो की इजाज़त हो तो में अपने छोटे भाई को स्टेज पर खड़ा कर देता हूँ लाहौर रेडियो स्टेशन के कर्मचारियों पर कोई चारा भी नही था तो रफी साहब को गाने की इजाज़त दे दे। बेकाबू भीड़ के सामने जब बालक रफी ने बिना माइक के गाना शुरू किया तो पब्लिक एक दम शांत हो गई और रफी साहब ने ऐसा समा बांधा की लोग वाह,वाह करते रह गए और रफी साहब की सबने बहुत तारीफ की, उन्ही लोगो मे हिंदी सिनेमा जगत की मशहूर संगीतकार जोड़ी श्याम-सुंदर भी मौजूद थे उन्हें रफी साहब की आवाज़ बहुत पसंद आई और उन्होंने रफी साहब को मुंबई आने का न्यौता दे दिया।

पहला ब्रेक-- रफी साहब को पहला ब्रेक एक पंजाबी फिल्म गुल-बलोच लिए मिला लेकिन रफी साहब के लिए ये नाकाफी था, रफी साहब को फ़िल्म जुगनू के गाने, यहाँ बदला वफ़ा का बेवफाई के सिवा क्या हैं से पहचान मिली और लता के साथ गाया हुआ ये गाना सुपरहिट साबित हुआ और रफी साहब को लोगो ने नोटिस किया, रफी साहब की प्रतिभा को सबसे पहले पहचानने वाले संगीतकार नोशाद थे। नोशाद कि पहली पसंद तलत महमूद और मुकेश थे नोशाद फ़िल्म के सभी गाने मुकेश से गवाते थे और रफी साहब से फ़िल्म में एक ही गाना गवाते थे फ़िल्म अंदाज़ में मुकेश ने सारे गीत गाए गाए जो दिलीप कुमार पर फिल्माए गए थे और रफी साहब के हिस्से एक गीत आया जो राज कपूर पर फिल्माया गया था और गीत के बोल थे लोग इन्ही अदाओं पर तो फिदा होते हैं जो ज़बरदस्त हिट साबित हुआ था इसी तरह फ़िल्म अनमोल घड़ी में भी रफी साहब को सिर्फ एक गीत मिला, तेरा खिलौना टूटा बालक, ये गाना भी बहुत हिट हुआ, इसके बाद फ़िल्म मेला में मुकेश ने सभी गीत गाए और रफी साहब को यहाँ भी एक गीत मिला, ये ज़िन्दगी के मेले, दुनिया मे कम न होंगे अफसोस हम न होंगे, बहुत पसंद किया गया। फिर भी रफी साहब की प्रतिभा के हिसाब से उनको सही मकाम नही मिल पा रहा था। फिर 1952 में आई नोशाद के संगीत से सजी एक आइकॉनिक म्यूजिकल फ़िल्म बैजू-बाबरा, इस फ़िल्म के गीतों ने तो मानो तहलका मचा दिया था हर तरफ रफी साहब के गाए हुए गीतों के चर्चे शुरू हो गए थे और रफी साहब को इसी फिल्म का इंतज़ार था फ़िल्म बैजू-बाबरा के गीतों को गाने के बाद रफी साहब ने पीछे मुड़कर नही देखा, और भारतीय संगीत की दुनिया मे एक धूमकेतु बनकर छा गए थे ज़रा सुनो, ओ दुनिया के रखवाले,। तू गंगा की मौज में गंगा की धारा,। दूर कोई गाए धुन ये सुनाए,। मन तड़पत हरि-दर्शन को आज, और झूले के पवन में आई बाहर प्यार कर ले, जैसे गीतों ने धूम मचा दी थी और आज भी जब इन गीतों को सुनो तो बदन में एक सिहरन पैदा हो जाती हैं कानो में ऐसा रस घुलता हैं जिसकी मिठास सुनने वाला महसूस करता हैं। बैजू-बावरा के बाद रफी साहब नोशाद के प्रिय गायक बनकर उभरे और रफी साहब, नोशाद और गीतकार शकील बदायुनी की तिकड़ी ने हिंदी संगीत को वो अमर गीत दिए जिसे सुनकर श्रोता आज भी झूमने को मजबूर हो जाते हैं। रफी साहब ने नोशाद के अलावा कई बड़े संगीतकारों के लिए गाया और एक से बढ़कर एक गीत हिंदी सिने संगीत को दिए, इनमें प्रमुख रूप से शंकर-जयकिशन, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, रोशन, एसडी बर्मन, आरडी बर्मन, सलिल चौधरी, कल्यानजी-आनंदजी, रवि, ओपी-नैय्यर, हेमंत कुमार, ख़य्याम, जयदेव,एस एन त्रिपाठी, आदि बड़े संगीतकार थे जो रफी साहब की आवाज़ का बेहतरीन तरीके से इस्तेमाल करते थे। इसके अलावा रफी साहब ने अपने ज़माने के बहुत बड़े,बड़े अभिनेताओं के लिए गाया, और कई अभिनेता तो रफी साहब की आवाज़ पाकर सफल हुए। जिनमे दिलीप कुमार, राजकुमार, मनोज कुमार, गुरुदत्त, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, सुनील दत्त, विश्वजीत, जॉय मुखर्जी, धर्मेंद्र, जितेंद्र, देवानंद, राजेश खन्ना, शशि कपूर, ऋषि कपूर और अमिताभ बच्चन जैसे बड़े सितारों पर रफी साहब की आवाज़ खूब सजती थी।

रफी साहब को मिले अवार्ड-- यूं तो रफी साहब को कई अवार्ड मील हैं फिर भी रफी साहब की ख्याति, प्रतिभा और कद के बराबर वो अवार्ड न के बराबर हैं अवार्ड के मामले में रफी साहब के साथ भारत सरकार और फिल्मों की ज्यूरी ने इंसाफ नही किया हैं भारत सरकार ने रफी साहब को सिर्फ पद्मश्री के लायक समझा, आजकल पद्मश्री तो उनको दिया जाता हैं जिनका कुछ खास उल्लेखनीय योगदान नही होता, पदम-भूषण, पद्मविभूषण, दादा साहेब फाल्के अवार्ड, और इन सबसे बढ़कर भारत-रत्न भारत सरकार को देना चाहिए था लेकिन भारत सरकार की नज़र में रफी साहब का संगीत को दिया योगदान शायद कम था इसलिए सरकार ने इन तमाम अवार्डों से रफी साहब को दूर रखा और रफी साहब को इन अवार्डों के लायक नही समझा। इसके साथ ही फ़िल्म-फेयर अवार्ड देने वाली ज्यूरी ने भी रफी साहब को सिर्फ 6 बार बेस्ट-गायक का फ़िल्म फेयर अवार्ड दिया कम से कम रफी साहब को 12 बार बेस्ट गायक का फ़िल्म फेयर अवार्ड मिलना चाहिए था इसके साथ ही सिर्फ एक नेशनल अवार्ड दिया गया फ़िल्म नीलकमल के गीत बाबुल की दुआएं लेती जा के लिए, कम से कम 7 नेशनल अवार्ड रफी साहब को देने चाहिए थे, पता नही रफी साहब के गानों में क्या कमी रह गई थी जो इतने कम अवार्ड भारत सरकार और अवार्ड-ज्यूरी ने रफी साहब को दिए, कम से कम एक नेशनल अवार्ड रफी साहब के नाम से भारत सरकार को जारी करना चाहिए था वो भी नही किया गया।

रफी साहब ने 6 बार बेस्ट गायक का फ़िल्म फेयर अवार्ड जीता। पहला फ़िल्म फेयर अवार्ड फ़िल्म चौहदवीं का चांद के गीत, चौहदवीं का चांद हो या आफताब हो, दूसरा फ़िल्म ससुराल के गीत तेरी प्यारी,प्यारी सूरत को किसी की नज़र न लगे, के लिए जीता, तीसरा अवार्ड फ़िल्म दोस्ती के गीत चाहूंगा में तुझे सांझ-सवेरे के लिए मिला। चौथा अवार्ड फ़िल्म सूरज के गीत, बहारों फूल बरसाओ, के लिए मिला, पांचवा अवार्ड फ़िल्म ब्रह्मचारी के गीत दिल के झरोखे में तुझको बिठाकर, और छटा फ़िल्म फेयर अवार्ड फ़िल्म हम किसी से कम नही के गीत, क्या हुआ तेरा वादा के लिए मिला। खैर रफी साहब का सबसे बड़ा अवार्ड तो उनके करोड़ो चाहने वालो का प्यार है जो आज तक रफी साहब के लिए कम नही हुआ। रफी साहब के गाए हुए हज़ारो गीत आज भी कर्णप्रिय और सुनने में लाजवाब लगते है फिर आई 31 जुलाई जिसने रफी साहब को हमसे हमेशा के लिए छीन लिया, और भारतीय संगीत का इतना बड़ा नुकसान किया जिसकी भरपाई रहती दुनिया तक नही हो सकती। बहरहाल रफी साहब आज हमारे बीच नही है लेकिन उनके गाए हज़ारो गीतो में रफी साहब हमारे दिलों में आज भी जिंदा हैं 31 जुलाई 1980 को ये आवाज़ का जादूगर, सुरों का सरताज, प्लेबैक-गायकों का बादशाह,  संगीत का शहेंशाह, गीतों का मसीहा मौसिकी का कोहिनूर महान और अमर गायक रफी साहब अपने चाहने वालो को हमेशा हमेशा के लिए छोड़कर चले गए, लेकिन रफी साहब संगीत में और हमारे दिलों में आज भी जिंदा हैं।





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