संविधान के लक्ष्यों और आकांक्षाओं की संपूर्ण पूर्ति अभी बाकी
संविधान पूर्ण है और उसकी मंशा पवित्र लेकिन उसका पूर्ण क्रियान्वयन अभी भी दूर है। संविधान को सच्चे अर्थों में जमीन पर उतारना है तो सुशासन से आगे चलते हुए पूर्ण सुशासन की जरूरत होगी जिसमें हर स्तर पर सबकी जिम्मेदारी होगी। इसकी एक झलक देने को दैनिक जागरण संविधान75 पूर्ण सुशासन की आस के नाम से एक सीरीज शुरू कर रहा है।

एक सुदृढ़ लोकतंत्र को दिशा देने वाला हमारा संविधान 75 साल का हो गया है। यह अच्छी बात है कि कोरे राजनीतिक मुद्दों के कारण लगातार बाधित हो रही संसद ने भी तय किया है कि संविधान पर चर्चा के जरिए ही सही कार्यवाही फिर से सुचारू होगी। शुक्रवार से संसद में चर्चा शुरू होगी।
यह देखना रोचक होगा कि चर्चा सार्थक होती है या भटकती है। यह आशंका इसलिए है क्योंकि राजनीतिज्ञों के लिए संविधान आस्था से ज्यादा चुनावी मुद्दा बन चुका है। संविधान के प्रति जनता के भरोसे को बनाए रखना और बढ़ाना तो दूर, डराने और भ्रमित करने का मुद्दा बन गया है।
संविधान को खतरा बता रहे राजनीतिक दल
मजेदार बात तो यह है कि आज के दिन सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं कि विरोधी पक्ष से संविधान को खतरा है। दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं। सच्चाई यह है कि 26 नवंबर 1949 को जब संविधान पूरा हुआ और 26 जनवरी 1950 को जिस संविधान को हमने अंगीकार किया, उसकी मंशा स्पष्ट थी- जनता सर्वोपरि है, संविधान देश की जनता के लिए है। तो क्या इस पर चर्चा नहीं होनी चाहिए कि संविधान ने जिस स्वतंत्रता, समानता, अधिकार की मंशा जताई थी, वह पूर्ण रूप से जनता को उपलब्ध है या नहीं? शासन-प्रशासन, व्यवस्था, राजनीतिक दलों के कारण किस तरह का व्यवधान खड़ा होता है?
संविधान पूर्ण है और उसकी मंशा पवित्र, लेकिन उसका पूर्ण क्रियान्वयन अभी भी दूर है। संविधान को सच्चे अर्थों में जमीन पर उतारना है तो सुशासन से आगे चलते हुए पूर्ण सुशासन की जरूरत होगी जिसमें हर स्तर पर सबकी जिम्मेदारी होगी। इसकी एक झलक देने को दैनिक जागरण 'संविधान@75 पूर्ण सुशासन की आस' के नाम से एक सीरीज शुरू कर रहा है।
संविधान को अगर दो स्पष्ट शब्दों में बांटा जाए तो वह हैं- लक्ष्य और आकांक्षा
संविधान को अगर दो स्पष्ट शब्दों में बांटा जाए तो वह हैं- लक्ष्य और आकांक्षा। लक्ष्य के लिए स्पष्ट निर्देश हैं और उसे पूरा करने के लिए संवैधानिक व्यवस्था तैयार की गई है। जबकि हर किसी से कर्तव्यों के रूप में कुछ आकांक्षाएं जताई गई हैं। चूक दोनों स्तर पर है। यह सच है कि कोई भी अधिकार संप्रभु नहीं हो सकता है, लेकिन यह सामान्य तौर पर देखा जाता है कि शासन-प्रशासन, राजनीतिक व्यवस्था के कारण मूलभूत अधिकारों में रोजाना कटौती होती है। समानता का अधिकार हर स्तर पर बाधित होता है
आपातकाल जैसे काले दिनों को छोड़ भी दिया जाए तो भी अधिकार कई बार लड़कर मिलते हैं और कई बार मिलते ही नहीं। अधिकार न होने के बावजूद भी किसी को सड़क पर प्रदर्शन करने या बंद करने का विशेष अधिकार मिल जाता है और परिणाम बड़ा वर्ग भुगतता है। जबकि राइट टू मूवमेंट सामान्य जनता का मूलभूत अधिकार है। रेवड़ी के लिए सरकारों के पास पैसा है लेकिन उस पैसे से सबके लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, स्वास्थ्य उपलब्ध कराना आज भी संभव नहीं हो पाया है।
संसद से लेकर विधानसभाओं तक साल में औसत 50 दिन भी कार्य नहीं होता
कोर्ट से न्याय में देरी सामान्य बात है। ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जहां न्याय मिलने से पहले ही याची या फिर आरोपित दुनिया से चला जाता है। देरी के लिए कोर्ट के अपने तर्क हैं लेकिन संविधान तो यह चाहता है कि न्याय त्वरित हो। विधायिका का मुख्य कार्य चर्चा के बाद कानून बनाना है लेकिन हालात कुछ ऐसे हैं कि संसद से लेकर विधानसभाओं तक साल में औसत 50 दिन भी कार्य नहीं होता।
यह सवाल उठना लाजिमी है कि सरकारी से लेकर निजी क्षेत्र तक में सेवा दे रहे लोगों के लिए केआरए (की रिस्पांसिबिलिटी एरिया) हो सकता है तो कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के लिए केआरए क्यों नहीं होना चाहिए।
हमें संविधान के अनुरूप आचरण करना है
अनुच्छेद 51 मूलभूत कर्तव्य के बारे में बताता है और कहता है कि हमें संविधान के अनुरूप आचरण करना है। भारत की सार्वभौमिकता, एकता और अखंडता, धार्मिक, भाषायी, क्षेत्रीय सौहार्द को बनाए रखना है। भाषायी और क्षेत्रीय सौहार्द को लेकर दक्षिण के कुछ राज्यों का व्यवहार किसी से छिपा नहीं है। यह देखना होगा कि संसद में संविधान पर चर्चा होती है तो क्या साथी राजनीतिज्ञ इसकी याद दिलाएंगे।
हमारे संविधान निर्माताओं का सोच भविष्योन्मुखी था, इसीलिए कर्तव्यों में पर्यावरण, नदियों, तालाबों के संरक्षण के बारे में कहा गया है। मगर अफसोस, इसकी याद तभी आती है जब सामने संकट खडा हो। कोर्ट भी तभी अधिकारियों को लताड़कर अपनी धमक दिखाता है। राजनीतिक दलों से इतनी अपेक्षा तो करनी ही चाहिए कि जब संविधान पर चर्चा हो तो आरोप-प्रत्यारोप की बजाय संविधान की मंशा को पूर्ण रूपेण प्रभावी बनाने में आने वाली अड़चनों को हटाने पर एक राय बनाएं।